प्रयास - अंत से फिर अरंभ ।।
हिन्दी में मेरा पहला प्रयास है, आलोचना का तहें दिल से स्वागत रहेगा और उस आलोचना पे पुरी कोशिश रहेगी ताकी में सुधार ला सकुं ।
शुक्रवार रात और शनीवार की सुबह में दो अपनों से मेरी बात हुई जिनसे कुछ मन मुठाव थे, कोशीष दोनों तरफ़ कुछ ऐसी हुई की मन कि खटास मिठास में बदल गई। दिल बहुत ख़ुश था पर मन में हज़ार सवाल उठे, जब दोनों तरफ़ भी इन्सान ही थें फिर दानव की तरह क्यों इतने दिन लढ रहे थें, क्या यें क्रोध था या ईर्ष्या थी, जवाब डुढनें में एक रात लग गयी, इस वेदना का मंथन से जो जवाब आया हैं, वह आपके सामने प्रस्तुत कर रहा हुँ, जो समझ जायें वो दूध सागर के मंथन का अमृत प्राप्त करने वाले भगवान बन जायेंगे और न समझने वाले, छोढों, कभी ओर उनकी बात करेंगे ।
अहंकार ( ego )था उस मंथन का जवाब, पर में अहंकारी नहीं हुँ ओर वो भी ख़ुद को नहीं समझता हे, नहीं समझें, में भी पहले समझ नहीं पाया था, ईस उलझन को सुलझाने के लिये में और उलझता रहा, जवाब नहीं मिला, पर एक काम याद आ गया था, जिसके लिये मुझे बेगम बाज़ार जाना था, वहाँ काम के दौरान मेरे हाथ हिन्दी मिलाप हाथ लगा, उसमें प्रस्तुत एक कहानी रामकृष्ण परमहंस की ने मेरे सारे सवालों का जवाब दे दिया था, छोटी सी हे, समज गये तो बहुत सरल हे, जो में आगे बता रहा हुँ ।
एक दिन रामकृष्ण परमहंस ने अपने कुछ छात्रों की परीक्षा हीत एक छोटा कार्य दीया, जहाँ उनको यह समझना था की सबसे समझदार कौन हैं । इस कार्य के लिये उन्होंने चार गाँव वालों को एक वन में भेजा जहाँ आम के पेड़ थे, और अपने छात्रों से निरीक्षण और परीक्षा करने के बाद बताने के लिये की, उन चारों में कोंन योग्य हे।
चार में एक पत्ते देख रहा था, दुसरा डाली तिसरा आम की लकड़ी में व्यतीत कर रहे थे पर उसमें चौथे वाले ने आम तोड़ के सबको खिला दिया ।
गुरु अपनी तपस्या ख़तम कर सब छात्रों से अपनी राई अभिव्यक्त करने के लिये कहा ।
आगे बढ़ने के पहले में आप सबसे अनुग्रह करता हुँ की, आप भी अपनी राय मन में सोच लें।
सब छात्रों ने अपनी राई बताई और अधीकॉश ने फल खाने वाले को योग्य बताया । पर गुरुजी इस बात पर असहमत थे, सब छात्र विस्मृत हो कर कारण पुछा, तब गुरूजी ने बताया की हम कौन होते है किसी को योग्य क़रार करने में, क्या किसी ने पहले उन चारों को पुछा कि वो क्या करने गये थे, सब ने कहा "नहीं", फिर बारी बारी उन चारों को वहाँ जाने का मक़सद पुछा, पहले ने बताया कि वो एक वैद्य है, वो पतों का परीक्षण कर रहा था दवा बनाने के लिये, दुसरा एक वृद्धाश्रम का संचालक था, जो डाली तोड़ कर बुढे लोग की सहायता करना चाहता था की वो आरम से चल सकें, तिसरा भी उसी का सहायक था जो लकड़ी काट उनके लिए एक घर बनाने की कोशीष में था, और आख़री वाले ने बताया कि उसके पास कुछ काम नहीं था और भुख लग रही थी ।सब छात्रों को ज्ञात हो गया था कि किसीको के बारे में कुछ निर्णय लेने पहले उनकी ज़रूरत समझे ।
ओर यही होता है निजी ज़िंदगी में , कोई क्यों आम खायेगा अगर उसे भूख नहीं हे । हर इंसान की अपनी अपनी अलग ज़रूरत होती है, पर हम ईसलीये किसी को मानते है क्यों की उसने वो नहीं किया जो हम चाहते थे । पर कभी ये समझने कि कोशीष नहीं कि वो क्या चाहते हैं । अपनी उम्मीदों पर खरा नहीं उतरने के कारण हम स्नेह छोढ देते हैं ।
भगवद गीता में भगवान कृष्ण ने इसी बात को बहुत सुंदर वर्णन दिया हैं ।
क्रोधाद्भवति सम्मोहः सम्मोहात्स्मृतिविभ्रमः |
स्मृतिभ्रंशाद् बुद्धिनाशो बुद्धिनाशात्प्रणश्यति ||
क्रोध से अत्यंत मूढभाव उत्पन्न हो जाता है, मूढभाव से स्मृति में भ्रम हो जाता है, स्मृति में भ्रम हो जाने से बुद्धि अर्थात ज्ञानशक्ति का नाश हो जाता है और बुद्धि का नाश हो जाने से यह पुरुष अपनी स्थिति से गिर जाता है।
में यह नहीं कह रहा हुँ की में इस बात का पालन कर रहा हुँ पर मेरी कोशीष इस बात पर ज़रूर रहेगी, समंदर के पानी को शायद में मिठा ना कर सकुं पर एक घुंट पिनें की सहनशीलता तो रख सकता हुँ ।
बहुत पहले की बात है, जब बसंती भुवाजी ने मुझे एक बात समझाई थी, पानी में लकड़ी मारने से पानी तुटता नहीं है ।
शायद इस ब्लॉग को में अंगेज़ी में बेहतर समझा पाता ।।
ईर्ष्या,द्वेष से क्या होता है,उस बारे मे एक मनभावन रचना पढने को मिली आपकी रचना बहुत ही भावात्मक है,इस लेख मे मैने अपने जिवन मेंअपनाने के लिये एक सुन्दर वाक्य लिखा गया है,उस वाक्य को अपने जिवन में अपनाने की कोशिश करूंगा।
ReplyDelete"सागर का पानी खारा होता है,उसे मैं मिठा तो नहीं कर सकता मगर एक गुंठ तो पी सकता हूँ"।
बहुत खूब दिल से बधाई देता हूँ।